रविवार, 11 अक्तूबर 2015

Indian Super League-2015


Indian Super League एवं आयोजकों की वीफतलता 

             भारत में क्रिकेट की तर्ज पर फूटबॉल को बढ़ावा देने के मकसद से खेल, मनोरंजन और उद्योग जगत में अपनी पहचान बना चुके लोगों  के सहयोग से पिछले वर्ष Indian Soccer League का  शुभारंभ हुआ।  पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी मैंने फुटबॉल मैच को  live देखने का निर्णय किया। पिछले  वर्ष हमने   Delhi Dynamos और Kerela   Blasters के  दरम्यान दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू  स्टेडियम में मैच देखे थे। हालाँकि  अपने जीवन काल में यह  मेरा किसी  भी मैच का सीधा मैदान में  live देखने का  पहला अनुभव था।  इसके लिए मैं अपने बिटिया का सदैव शुक्रगुजार रहूँगा क्योंकि  उसी ने स्टेडियम में मैच देखने की ख्वाहिश जताई थी।  यूँ तो फुटबॉल के खेल ने मुझे कभी भी  आकर्षित नहीं किया।   परंतु बिटिया की  इक्छा पूर्ति के लिए हम स्टेडियम जाने को तैयार हो गए थे।।  मन के किसी कोने में एक आशंका जरूर थी कि  मालूम नहीं १०० मिनट का समय कैसे कटेगा? ऐसा तो नही कि वापस आकर अपने निर्णय को धिक्कारते रहे?  इसी उधेड़- बुन के बीच और बिटिया के बार-बार आग्रह करने पर मैंने टिकट खरीद ली।  मेरे इस  निर्णय से मेरी बिटिया सबसे ज़्यादा खुश थी और मैं उसकी ख़ुशी से खुश था।  और आख़िरकार वो दिन भी  आ गया जब हमें जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में जाकर सीधा मैच देखने का अवसर प्राप्त हुआ।  वहां जाने  के बाद महसूस हुआ कि मनोरंजन के दृष्टि से घर पर टीवी में मैच देखने में और मैदान में जाकर मैच देखने  में कितना फर्क है।  वहां आप भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं और उस भीड़ के हर एक हरकत को आप बहुत करीब  से देखते हैं और उसमें भागीदारी भी लेते हैं। अपने उम्र को भुलाकर  एक बार फिर से अपने से २५-३० वर्ष कम नौजवानों के मौज-मस्ती का हिस्सा बन जाते हैं और आप भी उनके साथ वही सब करते हैं जो आप अकेले घर में बैठकर टीवी के समक्ष करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। आप  मैदान में बिताये गए हर एक पल को जीवंत जीते हैं और उन क्षणों में आप अपने सभी परेशानियों से मुक्त होते हैं। आपके समक्ष उस समय सिर्फ मैदान  में दिख रहे २२ खिलाड़ी  और मैदान के चारों तरफ बैठी दर्शक और उनके द्वारा किया जा रहा शोर होता है जो आपको मस्ती में सराबोर किये देता  है। 
            इसी लिहाज से जब इस वर्ष Indian Soccer League का दूसरा संस्करण शुरू हुआ तो मैंने निश्चय किया कि पिछले वर्ष की भांति इस वर्ष भी हम एक मैच देखने जरूर जाएंगे।  इस वर्च ४ अक्टूबर को चेन्नई स्थित जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में उद्घाटन होना था। इस बार मैंने बिटिया की तरफ से आग्रह आये उससे पहले ही मैंने १ अक्टूबर को ८ अक्टूबर को दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में Delhi Dynamos और Chennaiya के बीच खेले जाने वाले मैच का टिकट बुक  कर दिया था। मेरी पत्नी की क्या प्रतिक्रिया थी इस बात की जानकारी  मुझे नही हो सकी, लेकिन  मैं इतना जरूर कह सकता हूँ कि मेरे इस निर्णय से मैं और मेरी बिटिया बहुत प्रसन्न थे। पिछले वर्ष मैंने कम  दाम के पीछे वाली गैलरी की टिकट खरीदी थी, जिसमें सीट संख्या पहले से नही दी गयी थी।  प्रथम आओ और प्रथम पाओ वाला हिसाब-किताब था। यानि जो स्टैडियम में पहले  प्रवेश कर गया उसे आगे की सीट मिल जानी थी। एक तो मैदान के छोर से स्टेडियम में दर्शकों के बैठने  की प्रथम पंक्ति ही ५० मीटर की दुरी पर होगी, ऊपर से हमारा सीट ५० पंक्ति पीछे काफी ऊँचाई पर था। पिछली बार हम जहाँ बैठे थे वहां से मैदान में दौड़ रहे खिलाडी बौने लगते थे। इन सब बातों को ध्यान में रखकर इस बार मैंने मैच के उच्चतम  दर वाली  टिकट खरीदी थी जिसमें आपकी सीट आपके लिए आरक्षित थी। आप जब भी मैदान में आएं आपका सीट आपका इंतज़ार कर रहा होगा। चूँकि मैंने टिकट शुरुआत में ही बुक कर दिया था इसलिए मुझे प्रथम पंक्ति वाली सीट मिल  गई थी जो  शहर के गणमान्य  लोगों के लिए आरक्षित गैलरी  के साथ लगी   हुई  थी ।   
            यूँ तो हमारे निवास स्थान से स्टेडियम की दुरी तक़रीबन 25km ही है, परन्तु ट्रैफिक की वजह से पिछली बार  हम देर हो गए थे  और खेल  शुरू होने के १० मिनट बाद ही स्टेडियम में प्रवेश कर पाये थे। यह सोचकर कि पिछले वर्ष हम देर से पहुंचे थे,  इस वर्ष मैंने अपने ऑफिस से इस उम्मीद में अपराह्न की छुट्टी ले ली थी कि  घर से जल्दी निकलूंगा तो समय से पहले पहुँच जाऊंगा। साथ ही मन के किसी कोने में यह भी विचार था कि दोनों प्रतिस्पर्धी टीमों के संचालकों के साथ-साथ दिल्ली के कुछ प्रसिद्ध हस्तियों, अगर वो आते हैं तो, को करीब से देखना का मौका  भी  मिलेगा।  

दर्शक दीर्घा से खिंचा गया हमारा सेल्फ़ी 

             मैच ७ बजे  से प्रारंभ होना था।  मेरा अनुमान था कि अगर हम ५ बजे घर से निकल जाते हैं तो आराम से ६.३० तक स्टेडियम पहुँच जाएंगे।  इसी बात को ध्यान में रखकर जब मैंने बिटिया को जल्दी तैयार होने को बोला तो बिटिया ने प्रतिक्रिया किया कि मैच तो ७ बजे  से है अभी से जाकर क्या करेंगे?  शायद पत्नी का भी यही प्रतिक्रिया रहा होगा!!! लेकिन उसने हम पर जाहिर  नही किया। पिछले दो दिनों से वह हमसे नाराज़ थी।  नाराज़गी इस बात को लेकर थी कि मैंने उसके महिला मंडली के व्हाट्सऐप ग्रुप के एक सदस्य को देर रात को चैट करने से मना कर दिया था।  मैसेज नोटिफिकेशन की वजह से मुझे  नींद में खलल पड़ रहा था।  उसके मित्र को मेरे मना करने से वह आहत  महसूस कर रही थी और शायद उसे लग रहा था कि मेरे इस हरकत से उसके मित्र मंडली में उसे कहीं  कम ना आँका जाने लगे।  उसकी मित्र महोदया का कहना था कि अगर मुझे तकलीफ है तो  फोन को म्यूट  कर दूँ  या अपनी पत्नी को ग्रुप से निकल जाने को कह सकता हूँ और वह तो मेरी पत्नी के फोन पर मैसेज भेज रही है, मैं किस अधिकार से उसे रोक सकता हूँ? वो महिला है और महिला को उसके  घरवालों  के सो जाने के बाद ही चैटिंग के लिए समय मिलता है। जब मेरी पत्नी से पूछा गया तो उसने भी यही  बोला कि मेरे पति ने जो भी बोला है यह उनका विचार है उसका नहीं।  यानी मेरी पत्नी को भी मेरा देर  रात को मैसेज भेजना मना  करना गलत लग रहा था।  यहाँ तक की, सभी महिलाएं इस मुद्दे पर एक हो गयीं। एक ने तो उत्तेजना में मेरे लिए यहाँ तक लिख दिया  कि "क्या मैं Society का National Father हूँ जो उन्हें सिखाएगा कि उन्हें क्या करना है और कब करना है?"  अब उस महिला को कौन समझाए कि उत्तेजना में आकर जो उसने लिख दिया उसका क्या अर्थ होता है - उस महिला ने तो मुझे मेरे दो बच्चों के अलावा, Society की सभी महिलाओं सहित  उनके बच्चों का भी पिता  बना दिया!!!!  मुझे  उम्मीद थी कि शायद मेरी पत्नी को इस बात का बुरा लगा हो और वह उस महिला को भला-बुरा सुनाएगी लेकिन मुझे ऐसा होता प्रतीत नही हुआ। वैसे तो मैं अन्य बातों के लिए भी उसके नज़रों में गुनहगार हूँ लेकिन इस बार मेरा उसके मित्रों को एक सही सलाह देना,  मुझे उसकी नज़रों में एक बार  फिर गुनहगार  बना  गया।  
            चूँकि मेरी पत्नी मुझसे नाराज़ थी, मुझे तो उम्मीद भी नही थी कि वो मैच देखने जाने को राजी हो जाएगी।  एक रात पहले उसने सिनेमा देखने जाने से मना कर दिया था, जबकि सिनेमा का टिकट मैंने उसके कहने पर ही बुक कराया था।  मुझे अकेले ही सिनेमा  देखने जाना पड़ा  था।  मैंने अपनी बिटिया के बातों को नजरअंदाज कर दिया और आख़िरकार हम घर से ५.१५ पर निकल गए थे।  मुझे  उम्मीद थी कि इस बार हम ७.०० बजे से  पहले ज़रूर स्टेडियम में प्रवेश कर जायेंगे और मैच के शुरुआती  क्षणों से मैच का आनंद ले पाएंगे। जगह-जगह जाम लगे  होने के कारण हम रूट बदलते हुए किसी प्रकार ६.५०  पर पार्किंग एरिया में गाड़ी खड़ी  करने में सफल हो गए।  मैं खुश था कि मैच शुरू होने में अभी भी १० मिनट  बाकी था।  मैं आश्वस्त था कि इस बार हम खेल शुरू से देखने में सफल हो गए। परन्तु मुझे इस बात का ज़रा भी इल्म नही था कि नियति ने तो कुछ और ही  तय कर रखा है ।  
               पिछली बार हम जिस गेट से प्रवेश किए थे , हम सीधा उसी गेट पर पहुँच गए।  वहां  हमें बताया गया कि इस गेट से सिर्फ अति विशिष्ट व्यक्ति ही प्रवेश पा सकते हैं। साधारण व्यक्तियों के लिए प्रवेश का इंतज़ाम अन्य गेटों से है। उस वक़्त हमारे लिए ये किसी आपदा से कम  महसूस नही हो रहा था। हम जब घर से निकले थे मैंने तो  इस बात की कल्पना भी नही की थी कि प्रवेश द्वार भी अलग हो सकता है इसलिए कुछ और समय लेकर चलते हैं। ऐसा नही था कि सिर्फ हमारा परिवार ही इस सदमे  से रूबरू हो रहा था। चूँकि खेल शुरू होने में सिर्फ ५ मिनट का वक़्त रह गया था, जिधर देखो उधर अफरा-तफरी मची हुई थी। प्रवेश-द्वार परिवर्तन के लिए शायद हज़ारों दर्शक मानसिक रूप से तैयार होकर नहीं आए थे।  क्या बच्चे, क्या नौजवान, क्या बूढ़े, क्या पुरुष, क्या महिलाएं, सभी को  हतप्रभ होकर भागते हुए देखा जा सकता था। जब हमने दिल्ली पुलिस के ड्यूटी पर तैनात अधिकारी से पूछा कि हमारा प्रवेश द्वार कहाँ है, तो हमें बताया गया क़ि हमें घूमकर जाना होगा।  चूँकि हमने अपनी वाहन  पार्किंग में खड़ी कर दी थी और हमें इस बात का भी  ज्ञान नहीं था कि जहाँ हमारा प्रवेश द्वार बताया जा रहा है वहां पार्किंग की सुविधा है भी या नहीं- मैंने अपनी वाहन को वहां ले जाना उचित नही समझा। 
             स्टेडियम के चारो तरफ अव्यवस्था का ऐसा आलम कि स्टेडियम के बाहर हजारों की तादाद में दर्शक अपने प्रवेश द्वार  को ढूंढते हुए  उधर से उधर भागते हुए उन्हें जो भी राह में दीखता उससे प्रवेश-द्वार की जानकारी मांगते दिख  रहे थे। जहाँ हमने दिल्ली पुलिस  अधिकारी से बात की थी, वहां से नजदीकी प्रवेश द्वार संख्या १४ करीब आधे  किलोमीटर की दुरी पर था। वहां बताया गया हमें प्रवेश द्वार संख्या ४ पर जाना है जो आगे है।  कितना  आगे  है इसकी सही जानकारी देने वाला ना तो आयोजक के प्रतिनिधि थे और ना ही भारतीय खेल प्राधिकरण के।  दिल्ली  पुलिस के कर्मचारी जो तैनात थे उन्हें भी दुरी का सही ज्ञान नहीं था।  सभी यही कह देते बस थोड़ी और आगे  है।  कोई  प्रवेश द्वार संख्या ४  ढूंढ रहा था, तो कोई प्रवेश द्वार संख्या ६ तो कोई प्रवेश द्वार संख्या १४ । आयोजक, भारतीय खेल प्राधिकरण  और दिल्ली पुलिस किसी ने इस बात की आवश्यकता महसूस नहीं कि दर्शकों की जानकारी और सुविधा हेतु स्टेडियम के इर्द-गिर्द प्रवेश-द्वारों की मार्ग-दर्शिका लगा दी जाए । जब तक हम  प्रवेश-द्वार संख्या  १४ के समीप पहुँचते, स्टेडियम के अंदर से पटाखे की आवाज और स्टेडियम में मौजूद दर्शकों की शोर ने हमें  अहसास करा  दिया कि खेल का शुभारंभ हो चूका है और इस बार हम समय पर पहुँचकर भी किसी और की  असफलता के कारण फिर से देर हो चुके थे ।  अंततः २ किलोमीटर से ज़्यादा चलने के उपरांत  हमें हमारा प्रवेश  द्वार  संख्या ४ मिल ही गया। 



मोबाइल कैमरा से खिंचा गया मैच का दृश्य  


मोबाइल कैमरा से खिंचा गया मैच का दृश्य  

              इतना ही काफी  नहीं था, मुख्य द्वार से प्रवेश  के बाद ज्ञात हुआ कि अभी स्टेडियम में प्रवेश करने हेतु हमें आधा किलोमीटर और चलना था। उन दर्शकों का तो और बुरा हाल था जिन्हे प्रवेश द्वार संख्या ६ से प्रवेश पाना था।  उन्हें तो अभी और चलना था अपने  प्रवेश-द्वार तक पहुँचने  हेतु। खैर जब तक हम अपने आरक्षित सीट पर पहुँच पाते, तब तक खेल का २५ मिनट निकल चूका था। हमने स्कोर-बोर्ड पर १-० देखा तो जानकारी मिली कि  खेल के शुरुआती मिनट में ही दिल्ली ने एक गोल कर दिया था।  मैच का एक रोमांचक क्षण  हमने प्रवेश-द्वार ढूंढने में खो दिया था। उसके बाद  करीब ७५ मिनट का खेल देखने को मिला, लेकिन किसी टीम को गोल करने का अवसर प्राप्त नही हुआ। इस बात की जरूर तसल्ली हुई कि खेल को हमने प्रथम पँक्ति में बैठकर देखा।  लेकिन स्टेडियम के बाहर की अव्यवस्था ने गोल होते देखने का जो रोमांच होता है, उससे हमें वंचित कर दिया था। इस बात की समझ आयोजकों को अवश्य होनी चाहिए कि उनकी विफलताओं के कारण दर्शक परेशान  न हों। आयोजक से जिन्हें प्रवेश हेतु मुफ्त में पास मिल जाता है, उनके सुविधा हेतु ये आयोजक सारा इंतज़ाम कर देते हैं। लेकिन जो  दर्शक पैसे देकर टिकट खरीदते हैं और उनके आयोजन को सफल बनाते हैं, उन्हीं का ध्यान आयोजक नहीं रख पाते  हैं। मध्यांतर के दौैरान अति विशिष्ट व्यक्तियों हेतु खान-पान पर आयोजकों और खेल प्राधिकरण ने मोटी रकम खर्च करना उचित समझा, लेकिन दर्शकों के सुविधा हेतु मार्ग-दर्शिका पर पैसे खर्च की औचित्य नहीं समझी।  आमतौर पर यह देखा गया है कि मीडिया वाले ऐसे अव्यवस्था को जरूर उछालते हैं, लेकिन इस बार किसी मीडिया ने इसके  बारे में एक बार भी जिक्र नही किया।  शायद आयोजकों ने उनका ख्याल अच्छे  से रखा था। अति-विशिष्ट व्यक्ति वाले पंक्ति में प्रवेश, मध्यांतर के दौरान खान-पान की व्यवस्था आदि से  उनका ध्यान  इधर आकर्षित ही नहीं हो पाया।  उम्मीद की जानी चाहिये कि ऐसी अव्यवस्था का आलम दिल्ली वासियों को अगले मैचों में देखने को फिर से नहीं मिलेगा।